Tuesday, March 31, 2009

कलम


कलम चले तो वक्त का सीना फाड़ दे,
कलम रुके तो इतिहास का पहाड़ दे|
कलम में इतना पैनापन हैं,
की जब लड़े,सताओ को उखाड़ दे ||

कलम!सच का हमेशा साथ दे,
कलम!खुशियों की फुहार दे|
कलम !कमजोर को अपनी ढाल दे,
कलम!अकेलेपन से पार दे|
जब भी चले मेरी कलम!
मुसीबत को हुँकार दे||

कलम !जज्बात कागज़ पर उतार दे,
कलम !खूबसूरती को निखार दे|
कलम !हकीकत को उभार दे,
कलम !देश को अभिमान दे||

मेरे लिए बस यही दुआ करो,
जब भी चले मेरी कलम,
सच्चाई का प्रमाण दे||

Saturday, March 28, 2009

दिख भी जाते हैं तो कतरा के निकल जाते हैं

दिख भी जाते हैं तो कतरा के निकल जाते हैं,
वक्त के साथ तो रिश्ते भी बदल जाते हैं|
जो कभी हमारे बिना अधूरे थे,
आज हमसे कोसो दूर नज़र आते हैं||

शायद इंसान की फितरत में है यह,
गिरगिट की तरह रंग बदलते जाते हैं|
जिसके लिए जिया करते थे वोह,
आज आपस में दुश्मन कहलाते हैं||

हम तो समझते थे की पत्थर भी पिघल जाते हैं,
पर यहाँ तो ख़ुद अपने ही ठोकर लगाते हैं|
हम तो उनकी मोहब्बत में गिरफ्तार हैं यारो,
ठोकरे खा के भी नासमझ ही कहलाते हैं||

जिन पर भरोसा किया करते थे,
वक्त आने पर वोही लोग बदल जाते हैं|
अब तो दिख भी जाते हैं तो कतरा के निकल जाते हैं,
छोड़ो यारो!!क्यो हम उनके लिए आँसू बहाते हैं [;) ]||

Thursday, March 26, 2009

ख़ुद को जीना सिखलाऊ तो कैसे?


अजीब कशमकश में फँसा हूँ,
ख़ुद को जीना सिखलाऊ तो कैसे?
मैं बेचैन हूँ ,खामोश हूँ
आँखों को रोना सिखलाऊँ तो कैसे?
उनको देखूँ तो दिल मचल उठता हैं
अपने जज्बातों को सीने में छुपाऊँ तो कैसे??

मैं कौन हूँ,क्या हूँ,यह नही जानता
पर इस बात को आईने से छुपाऊँ तो कैसे??
जो सच हैं वोह बदलता नही हैं
ख़ुद की हकीक़त झूठ्लाऊँ तो कैसे?
मेरे दिल में तो तुम ही बसी हो
आखों से परदा हटाऊँ तो कैसे??
अजीब कशमकश में फँसा हूँ
ख़ुद को जीना सिखलाऊँ तो कैसे???

मेरे हर पल में सिर्फ़ तुम हो
पर चाँद को चकोर से मिलाऊँ तो कैसे??
आखों के इशारे तो समझती नही हो
शब्दों के भ्रमजाल में फंसाऊं तो कैसे??
मैं तुम्हारा हूँ,सिर्फ़ तुम्हारा
इस दिल को खोल के दिखलाऊँ तो कैसे??

तू ख़ुद ही बता दे मुझे ऐ जालिम
इस नाजुक से मन को समझाऊँ तो कैसे??
इतना उलझा हूँ मैं,की न समझूँ
कैसा हूँ ,कैसे को
इन बेचैन से सवालों से हटाऊँ तो कैसे ??
अजीब कशमकश में फंसा हूँ,
ख़ुद को जीना सिखलाऊ तो कैसे??

Wednesday, March 25, 2009

हे खुदा!इंसान बना दे















हे
खुदा!इंसान बना दे
न चाहूँ मैं ग़ालिब का तमगा,
न तू शान अपार दिला दे|
जब भी मांगू,बस एक दुआ दे
हे खुदा! इंसान बना दे ......

सरहदों का भेद मिटा दे ,
अमन-चैन का वरदान दिला दे |
धर्मो का बंधन हटा दे,
अंधेरे को दूर भगा दे||
जब भी मांगू,बस एक दुआ दे
हे खुदा! इंसान बना दे ...

सच्चाई का परचम फेहरा दे
बुराई का तू नाश करा दे
जब भी कोई मांगे, तो बस एक दुआ दे
हे खुदा!इंसान बना दे ...

आतंक का तू अंत करा दे,
खुशियों की चादर उडा दे|
दोस्ती का खेल सिखला दे,
हर मैं तेरा अक्स दिखला दे||
जब भी कोई मांगे,तो बस एक दुआ दे
हे खुदा!इंसान बना दे.....

नादान हूँ, तुझसे ही प्यार करता हूँ||


मैं ही हमेशा इजहार करता हूँ,
क्यों तेरे जवाब का इंतज़ार करता हूँ|

यही खता मैं बार बार करता हूँ,
चाहते हुए भी तुझसे ही प्यार करता हूँ||

शायद नादान हूँ तेरी फितरत से जालिम,
क्यों तेरी सोच में वक्त बेकार करता हूँ|

काटता हैं मुझे अकेलापन,
इसलिए अपने आप से तकरार करता हूँ|
न चाहते हुए भी,तुझसे ही प्यार करता हूँ||

तेरी खामोशी मुझे डराती हैं,
तुझे खोने के डर से नही मैं इनकार करता हूँ|

आख़िर इंसान हूँ मैं,कब तक इंतज़ार करूँ तेरा,
फिर भी मैं इज़हार-ए-इश्क आखरी बार करता हूँ|
नादान हूँ, तुझसे ही प्यार करता हूँ||

अगर "न" हैं तेरी तो, खत्म यह करार करता हूँ|
और फिर से तेरी "हाँ" का इंतज़ार करता हूँ||

मजहब नही सिखाता आपस में बैर रखना | पर मजहब में बंट चुका है हिन्दुस्तान हमारा||


बचपन में खूब सुना था,
मजहब नही सिखाता आपस में बैर रखना |
पर मजहब में बंट चुका है हिन्दुस्तान हमारा||

इस आंधी से कौन बचा हैं?
हर एक कट चुका हैं,वतन का दुलारा|
मजहब में बंट चुका हैं हिन्दुस्ता हमारा||

अब करने को क्या बचा हैं?
न खुशियों में बचा हैं आपस में भाईचारा,
निज स्वार्थ की लडाई को बताया मजहब का इशारा|
और शान से घुमा,यहाँ मानवता का हत्यारा,
मजहब में बंट चुका हैं हिन्दुस्ता हमारा||

मन्दिर-मस्जिद के लडाई ही बना जीने का ध्येय हमारा,
खुश होंगे जब बहेगा,किसी कौम का खून सारा|
ना जाने कितने भागो में बटेगा यह गुलिस्ता हमारा,

मजहब में बंट चुका हैं हिन्दुस्ता हमारा||

Friday, March 13, 2009

मेरे अन्दर की होलिका तो जलती ही नहीं हैं...

आप सभी को होली मुबारक हो !!




















मेरे
अन्दर की होलिका तो जलती ही नहीं हैं
रंग तो चढ़ते हैं अनेक पर,यह काली सी सीरत बदलती नहीं हैं।
राग द्वेष की इस वेदी पर,प्रेम की सूरत सँवरती नहीं हैं
जलाता तो हूँ हज़ार होलिकाए,पर मेरे अन्दर की होलिका तो जलती ही नहीं हैं॥

प्यार के रंग में भरता हूँ पिचकारी तो,
मजहब की चोटी पर चढ़ती नहीं हैं।
अरे!कैसी पिचकारी हैं यह,मानव को मानव समझती नहीं हैं
मेरे अन्दर की होलिका तो जलती नहीं हैं॥

इन खूबसूरत रंगों का मतलब तो समझो
यह रंगीनिया बेमानी हैं,अगर जीवन में खुशियों को भरती नहीं हैं।
इन हजारो होलिकाओ को जलाने का क्या फायदा??
जब अन्दर की होलिका तो जलती नहीं हैं॥

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