Wednesday, October 27, 2010

न मस्जिद हो,न शिवाला हो....



"बच्चन" की मधुशाला हो,
या "ग़ालिब" के मय का प्याला हो |
"दिनकर" का उजाला हो ,
या महाकवि "निराला" हो |
आओ बनाये एक जहान ऐसा
जहाँ हर शख्स,
इनकी कल्पना से रंगा,
एक रंगीन दिलवाला हो |
पर बँटने की जब भी बारी आये,
न मस्जिद हो,न शिवाला हो ||

"आमिर" चार साकी ऐसे भी ढूंड लेना,
जिनमे न नफरत हो,
न उसका कोई हवाला हो |
बस जीने की जब भी बारी आये ,
वहां हर कोई मतवाला हो |
दिल का रिश्ता ऐसा हो ,
के पीने वाले चार हो,
और बीच में एक ही प्याला हो |
पर बँटने की जब भी बारी आये,
न मस्जिद हो,न शिवाला हो ||

Friday, October 15, 2010

आज चाँद मुस्कुरा रहा था...!



आज मुझे देख,चाँद मुस्कुरा रहा था
तुम नहीं हो साथ मेरे,
यह अकेलापन खाए जा रहा था|
आकाश में दिखते वो झिलमिल सितारे ,
शायद खुदा तेरे आने की आस में,
दिए जला रहा था ||
आज मुझे देख,चाँद मुस्कुरा रहा था...!

धीमे धीमे से छूती वो कोमल हवाएं,
लगा जैसे तेरा आँचल लहरहा रहा था |
कहीं दूर से आती गानों की आवाजें,
मानो कोई अपना,गुनगुना रहा था ||
आज मुझे देख,चाँद मुस्कुरा रहा था...!

तेरी कमी को कैसे पूरा करता,
मैं तस्वीरो से ही घंटो बतिया रहा था |
मुझे क्या मालूम था, की तुझे भुला न पाऊंगा?
जब मैं रो रहा था,तब मुझे देख,चाँद मुस्कुरा रहा था...!

Monday, October 11, 2010

अक्स


मैं जो हूँ,वो तेरा एक अक्स हूँ|
खुद का मेरा कुछ न बना,
जो भी हूँ, बस एक अक्स हूँ||

पैदा होने से,घर वालो के सपनो का,
बस आगे बढता, एक लक्ष्य हूँ|
जो भी देखा,जो भी समझा,
उसको अपनाने में दक्ष हूँ|
खुद को तो पा ना सका,
बस झूठे अक्सो में घूमता,
धुंधलाता एक अक्स हूँ||

मुझ से मेरा कुछ ना बना,
जो भी था या जो भी हूँ |
भटकता हुआ एक अक्स हूँ |
जब भी खुद को ढूंढा मैंने
शीशा भी बोला मुझसे,
सच का तो पता नहीं ,
जो भी हूँ बस एक अक्स हूँ||

जिंदगी को तो मैं पा ना सका
पूरा वक़्त दौड़ा, सपनो के पीछे
आखिर में जो भी मिला
वो खुद रुक के मुझ से पूछा
क्या मैं ही तेरा लक्ष्य हूँ?
जब मैंने पीछे देखा
तो मुझ मैं मेरा कुछ ना था
अब तो लगता हैं की जिन्दा भी हूँ,
या सिर्फ एक झूठा अक्स हूँ ||

जिंदगी जी ली दुसरो के खातिर
अब ए जिंदगी! यह तो बता दे
की तू तो सच हैं ?
कही ऐसा ना हो की तू भी बोले
मैं वो नहीं,उसका ही एक अक्स हूँ|

मेरा खुद का कुछ ना बना
बस धुंधलाता एक अक्स हूँ...
बस एक अक्स हूँ..सिर्फ अक्स हूँ ||

Sunday, October 10, 2010

खुशनसीब


क्या बनाने आये थे और क्या बना बैठे?
मज्हबो की लड़ाई मे,खुद को उलझा बैठे
हम से तो खुशनसीब वो परिंदे निकले
जो कभी मंदिर पे जा बैठे,तो कभी मस्जिद पे जा बैठे

LinkWithin

Related Posts with Thumbnails