Saturday, October 11, 2008

सच की तलाश में..

किसको देगा सजा तू
कहीकोई काफिर तो हो|
तू तो ख़ुद बंट चुका हैं||
आख़िर अब तेरा सच जाहिर तो हो....

कहा न ढूंढा तुझे मैंने?
इन पथ्थरो के पीछे कोई ईश्वर तो हो|
बहुत सजदे कर लिए तेरे सामने||
आख़िर अब तेरा सच जाहिर तो हो....

इस सच-झूट की उधेड़बुन में
बहुत थक चुका हूँ मैं|
इस अथाह खोज की चाहत में
कही कोई साहिल तो हो ||
आख़िर अब तेरा सच जाहिर तो हो ....

कितना खून बह चुका हैं तेरे नाम पर
तू कातिल हैं या मसीहा ??|
कम-स-कम तेरे अपने तेरे रूप से वाकिफ तो हो
आख़िर अब तेरा सच जाहिर तो हो ....

Wednesday, October 8, 2008

13 दिसम्बर


यह इस कड़ी(मेरी शुरुवाती दिनों मैं लिखी गई कविताओ) की आखिरी कविता हैं ....यह कविता 13 दिसम्बर के दिन भारतीय अस्मिता (भारतीय संसद)पर हुए हमले पर आधारित हैं|इस कविता में एक आदमी के हालत को बयां किया गया जो उस हमले के वक्त वहाँ उपस्थित था ||
पेश हैं मेरी कुछ पंक्तियाँ...

चारो तरफ़ सन्नाटा था,
उठी एक गोली की आवाज़|
मैं भगा और देखा की कौन हैं यह जाबांज,
देखा तो पाया के थे यह आतंकवादी||
चारो तरफ़ फैलाना चाहते थे यह क्रूर बर्बादी|
जब तक मेरी समझ में आता,
और मैं कही भाग पाता||
तभी आया उनमे से एक,
बन्दूक उठाई मुझको देख|
जब वह मुझ पर गोली चलता,
उससे पहले कोई मुझे बचाना चाहता||
नई चल खेल गया विधाता|
उस पर चल गई थी गोली,
लग गई उसके प्राणों की बोली ||
वह हो गया ज़मीन पर ढेर|
क्योकि शेर को मिल गया सवा शेर ||

नेता


पिछली कड़ी को आगे बदते हुए मेरी शुरुवाती दिनों (8वी कक्षा) के दौरान लिखी गई कुछ कवितायें लेकर आपके सामने प्रस्तुत हूँ...यह कविता आज के नेताओ पर आधारित हैं ...इसमे मैंने उनपर कटाक्ष करने की कोशिश की हैं ...प्रस्तुत हैं मेरी छोटी से पेशकश .....

शहीदों की भूमि हैं भारत,
भ्रष्टाचारी नेता हैं आज का नारद |
यह संविधान व जनता के बीच की कड़ी हैं,
जिसके कारण भारतीय जनता आपस में लड़ी हैं||

यह देश की समृद्धि में अवरोधक रूपी दिवार खड़ी हैं ,
इसके कारण भारतीय अर्थव्यवस्था सड़ी हैं|
बड़ी महँ संस्कृति हमारी,
आज लुप्त हो गई सारी||

कुर्सियों के लिए पार्टियों का हो गया फैलावा,
नेताओ को करना पड़ता हैं आज बड़ा दिखावा|
इन नेताओ के कारण फैली यह महामारी,
चुनाओ के समय जनता के सामने बन जाते भिखारी,
फिर पाँच साल तक जनता को भूल जाता यह सेवक भ्रष्टाचारी||

मेरा पहला प्रयास....


आज मैं आपके सामने वो प्रस्तुत कर रहा हूँ जो मेरे लिए अमूल्य हैं...मेरी पहली कविता....
इसी कविता के साथ मैंने पहली बार काव्य लेखन शुरू किया था॥
यह कविता "महात्मा गाँधी जी "पर आधारित हैं |यह कविता मैंने 8 वी कक्षा में "बापू" के जन्मदिवस पर मेरे विद्यालय (स्कूल) के कार्यक्रम के लिए लिखी थी...और उसी के बाद मुझे लिखने का शौक लगा....प्रस्तुत हैं मेरी कविता....

"साबरमती का संत हैं यह गाँधी,
जिसने देश में एकता की डोर हैं बाँधी"

हिन्दुस्तान के लकते जिगर ने कर दिया कमाल|
एक लाठी के बल पर मचा दिया धमाल
और अंग्रेजो के लिए बन गया महाकाल||

यह देश की आज़ादी का कारक हैं,
इसकी लाठी दुश्मनों की आहिंसा रूपी मारक हैं|
यह आहिंसा का पुजारी हैं,
यह नेत्र पर ऐनक धारी हैं||

यह हमारी आज़ादी का नायक हैं,
स्वतंत्रता प्राप्ति में हुई कठिनाइयों का गायक हैं|
इसने देश को दिया आहिंसा का नारा हैं,
यह जगत में भारत को सबसे प्यारा हैं||

Tuesday, October 7, 2008

कोई नहीं ....


दोस्त तो हमारे भी हज़ार हैं लेकिन,
दोस्ती निभाने वाला कोई नहीं |
चाहते तो हम बहुतो को हैं लेकिन,
हमें चाहने वाला कोई नहीं ||

अंधेरे से भरा यह रास्ता कठिन हैं मगर,
रोशनी दिखाने वाला कोई नहीं |
मंजिल तो हमारे सामने हैं ,
लेकिन हमें वहां पहुंचाने वाला कोई नहीं ||

आज कितना तनहा,अकेला हो गया हूँ मैं,
मेरे साथ वक्त बिताने वाला कोई नहीं |
क्या यही जिंदगी की कड़वी सच्चाई हैं ???
यहाँ खुशी के गीत गुनगुनाने वाला कोई नहीं ||

मुश्किलों के समुन्दर में फंसी कश्ती को,
किनारे पहुचाने वाला कोई नहीं |
सेहरा में फंसे किसी प्यासे को,
पानी पिलाने वाला कोई नहीं ||

जिंदगी की इस राह में,
साथ निभाने वाला कोई नहीं |
तनहा हूँ तनहा,
तन्हाई मिटाने वाला कोई नहीं ||
दोस्त तो हमारे भी हज़ार हैं लेकिन,
दोस्त निभाने वाला कोई नहीं....

क्यों नहीं उबलता खून हमारा ??



क्यों खून उबलता नहीं मेरे देश के वासी का
क्यों क्लेवर बदलता नहीं मेरे देश की झाँसी का
क्यों झगड़ बैठा हैं वो त्रिशूल पर या दाढ़ी पर
क्यों राजनीति हो रही हैं "नैनो" जैसे गाड़ी पर
क्यों डर बैठा हैं वो बम जैसे खतरों से
ना उम्मीद हो चुके हैं हम इन सरकारी बहरों से
फिर भी,क्यों खून उबलता नहीं मेरे देश के वासी का ??

क्यों ख़ुद पर हो हमला,तो भड़क उठता हैं वो
पर देश के लिए क्या कारण हैं,इस बेरुखी,इस उदासी का
क्यों खून उबलता नहीं मेरे देश के वासी का

कहाँ गुम हो गया हैं "भगत"इन आदिम अंधेरो में
क्यों इंतज़ार करता हैं वो इस सरकारी फांसी का
क्यों काम करता हैं वो इन नेताओ की दासी सा
क्यों खून उबलता नहीं मेरे देश के वासी का

बस एक प्रश्न पूछता हूँ मैं आपसे
क्यों प्रश्न बदलता नहीं मेरे जैसे प्रयासी का.....
क्यों खून उबलता नहीं मेरे देश के वासी का????

Wednesday, October 1, 2008

ज़िन्दगी

कहीं धुएं में उड़ती ज़िन्दगी
कहीं सड़को पर घटती ज़िन्दगी
हें आदमी ने ख़ुद ही बनाई अपनी यह गत
की जीने को तरसी,ख़ुद ही जिंदगी||

न खुली हवा,न सूरज की किरण
आधुनिकता की आड़ में भटकती जिंदगी
न अमीर को सुख,न गरीब को चैन
खुशी की चाह में दहकती ज़िन्दगी
ज़िन्दगी-हे-ज़िन्दगी,जीने की चाह में भटकती ज़िन्दगी ||

भागती ज़िन्दगी,दौड़ती ज़िन्दगी
धर्मों के नाम पर बटती ज़िन्दगी
क्या करेगा इंसान इस ऊँचाई पर पहुँच कर???
जहाँ जीने को तरसी,ख़ुद ही ज़िन्दगी||

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