Wednesday, October 27, 2010

न मस्जिद हो,न शिवाला हो....



"बच्चन" की मधुशाला हो,
या "ग़ालिब" के मय का प्याला हो |
"दिनकर" का उजाला हो ,
या महाकवि "निराला" हो |
आओ बनाये एक जहान ऐसा
जहाँ हर शख्स,
इनकी कल्पना से रंगा,
एक रंगीन दिलवाला हो |
पर बँटने की जब भी बारी आये,
न मस्जिद हो,न शिवाला हो ||

"आमिर" चार साकी ऐसे भी ढूंड लेना,
जिनमे न नफरत हो,
न उसका कोई हवाला हो |
बस जीने की जब भी बारी आये ,
वहां हर कोई मतवाला हो |
दिल का रिश्ता ऐसा हो ,
के पीने वाले चार हो,
और बीच में एक ही प्याला हो |
पर बँटने की जब भी बारी आये,
न मस्जिद हो,न शिवाला हो ||

1 comment:

Unknown said...

maan gaye dada...bahut pyara likha...

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