Wednesday, December 15, 2010
न जाने कहाँ को हैं हम चले !
सूना हैं मंजर,सूनी हैं महफिले |
सुख गए सारे बगीचे,
जो हाल ही में थे खिले खिले ||
जब से छोड़ के उनको,न जाने कहाँ हो हैं हम चले !
याद नहीं की जूते कहाँ उतारे थे?
चलते चलते इतनी दूर आ निकले ,
पर अब चुबने लगे है छोटे छोटे कंकर पाँव में ,
जब से छोड़ के उनको ,न जाने कहाँ को हैं हम चले !
हम तो उनमे इतने मशगुल थे ,
की रास्तें भी ढंग से याद नहीं |
वो फिजा भी इतनी कातिल थी
के मदहोश हुए नज़ारें थे ,
बैठे थे हम तो ख्वाबों की छाहों के तले|
तभी मालूम नहीं की क्या हुआ,
जिनकों समझा रात में जुगनू
वो तो सब टूटे तारे निकले|
सब कुछ बदला बदला सा था ,
झूठे सब नज़ारे निकले ||
हम तो सोचे थे,मजबूत हैं रिश्ता हमारा|
पर पल भर को मुड़े,
तो सब कच्चे धागे निकले |
खुद की ही झुठलाते रहे ,
चोट लगी थी,घाव नए थे
ज़ख़्म वो ही पुराने निकले ||
पर अब सब कुछ बदला बदला सा हैं,
जब से छोड़ के उनको, न जाने कहाँ को हैं हम चले !
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