Sunday, January 31, 2010

दिल


तू ही बता,ऐ दिल मेरे,
मैंने तो हमेशा तेरा ही कहाँ माना हैं |

मेरे इस दीवानेपन को क्या समझूँ ?
लगता हैं मैंने इश्क को कहाँ जाना हैं??

हजारों सपने बोये मैंने,
पर शायद फूलों को तो,
सिर्फ काँटों को साथ निभाना हैं|

जहाँ गीतों की महफ़िल सजनी थी,
वहां सिर्फ सन्नाटो का ठिकाना हैं||

यह कैसा इन्साफ हैं?
इश्क की तपिश में जलता सिर्फ परवाना हैं|

कोई इसे पागल समझे,
या कोई कहे दीवाना हैं||

ऐ दिल अब तू ही बता!!
सिर्फ तुने ही इस मासूम से इश्क को
अछे से जाना हैं ,जाना हैं ||

4 comments:

Mithilesh dubey said...

बेहद सुन्दर अभिव्यक्ति ।

Udan Tashtari said...

बेहतरीन!

M VERMA said...

बहुत सुन्दर रचना

अजय कुमार said...

अच्छी रचना , बधाई

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