Thursday, March 26, 2009
ख़ुद को जीना सिखलाऊ तो कैसे?
अजीब कशमकश में फँसा हूँ,
ख़ुद को जीना सिखलाऊ तो कैसे?
मैं बेचैन हूँ ,खामोश हूँ
आँखों को रोना सिखलाऊँ तो कैसे?
उनको देखूँ तो दिल मचल उठता हैं
अपने जज्बातों को सीने में छुपाऊँ तो कैसे??
मैं कौन हूँ,क्या हूँ,यह नही जानता
पर इस बात को आईने से छुपाऊँ तो कैसे??
जो सच हैं वोह बदलता नही हैं
ख़ुद की हकीक़त झूठ्लाऊँ तो कैसे?
मेरे दिल में तो तुम ही बसी हो
आखों से परदा हटाऊँ तो कैसे??
अजीब कशमकश में फँसा हूँ
ख़ुद को जीना सिखलाऊँ तो कैसे???
मेरे हर पल में सिर्फ़ तुम हो
पर चाँद को चकोर से मिलाऊँ तो कैसे??
आखों के इशारे तो समझती नही हो
शब्दों के भ्रमजाल में फंसाऊं तो कैसे??
मैं तुम्हारा हूँ,सिर्फ़ तुम्हारा
इस दिल को खोल के दिखलाऊँ तो कैसे??
तू ख़ुद ही बता दे मुझे ऐ जालिम
इस नाजुक से मन को समझाऊँ तो कैसे??
इतना उलझा हूँ मैं,की न समझूँ
कैसा हूँ ,कैसे को
इन बेचैन से सवालों से हटाऊँ तो कैसे ??
अजीब कशमकश में फंसा हूँ,
ख़ुद को जीना सिखलाऊ तो कैसे??
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3 comments:
:)
Aapki ye kavita bas sahi jagah pahunch jaye khan sahab....
E! Shayar teri Qalam ko choomane ko jee chahata hai....
mast hai yar.anshul m agree wid u..sahi jagah tak pahuch jaye...
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